उस पॉश कॉलोनी के सेक्रेटरी ने कॉलोनी में प्रतिभावान बच्चों का सम्मान करने हेतु एक कार्यक्रम आयोजित किया था। उस कॉलोनी के अधिकांश बच्चों ने अच्छे-अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण कर कॉलोनी का नाम रोशन किया था। कॉलोनी के टॉपर बच्चों के बारे में उनके माता-पिता खूब बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे थे। तभी वहां एक वृद्धा जैसे-तैसे लाठी टेकते हुए आईं और गुस्से से कहने लगीं -‘इस कॉलोनी के बच्चे ज़रूर इम्तिहान में अच्छे अंक लाए होंगे पर इन्हें केवल किताबी ज्ञान ही प्राप्त हुआ है। तभी तो इन शैतान बच्चों ने मिलकर मुझ जैसी बूढ़ी और असहाय महिला की सहायता करने की बजाय मेरे पीछे अपना कुत्ता छोड़ दिया था। जब मैं डरकर दौड़ने का प्रयास करने लगी तब गिर पड़ी। ये बच्चे मेरे इस हाल पर ताली बजा-बजा कर हंसते रहे। मज़ा लेते रहे। आज इनकी वजह से मेरे एक पैर की हड्डी टूट गई है। अरे! ऐसे कोरे किताबी ज्ञान का क्या फायदा? जहां माता-पिता अपने बच्चों को नैतिकता और अच्छे संस्कार न सिखा पाए। असली शिक्षा तो अच्छे व्यवहार की होना चाहिए। बड़ों के सम्मान की शिक्षा हो। कोरे ज्ञान से जीवन नहीं चलता है।’ वहां उपस्थित सभी लोगों ने उनका समर्थन किया। अब तक मात्र परीक्षा के नंबरों पर अपने बच्चों की पीठ ठोक रहे अभिभावकों के बीच चुप्पी छाई थी।
बस दो घंटे में आ जाऊंगा मम्मी! प्लीज जाने दीजिए न।’ आशीष अपनी ज़िद पर अड़ा था। ‘बड़े हो गए पर अभी तक समझदारी नहीं आई। घर में सारे लोग आए हुए हैं और तुम्हें कॉलेज जाने की पड़ी है?’ मैं भी मानने को तैयार न थी। तभी मेरे पतिदेव ने मुझे इशारे से बुलाया और कहा, ‘जाने भी दीजिए! दोस्तों के पास जा रहा होगा। दो घंटे की तो बात है।’ उनके कहने पर मैंने उसे जाने की इजाज़त दे दी। असल में आज मेरे बेटे का जन्मदिन था। अठारह साल का हो गया मेरा बेटा! दादा-दादी, नाना-नानी सहित सभी रिश्तेदार उपस्थित थे। दोनों परिवारों के बच्चों में सबसे बड़ा जो था। जन्मदिन की ख़ूब गहमागहमी थी। सुबह सत्यनारायण भगवान की पूजा हुई। दिन में खाना-पीना चल रहा था। शाम को केक काटने का प्रोग्राम था। खाने के बाद सभी इकट्ठे बैठकर बातचीत करने लगे। बैठक में मर्दों की टोली तो एक कमरे में औरतों की टोली और दूसरे में बच्चों की। पूरे घर में हंसी-ठहाके गूंज रहे थे। तभी आशीष हाथ में एक गिफ्ट का छोटा-सा डिब्बा लिए अंदर आया। सभी बच्चे पूछने लगे, ‘भैया! क्या गिफ्ट मिला दिखाओ न!’ उसने वह डिब्बा अपने छोटे भाई-बहनों के हवाले कर दिया। श्रुति ने लपककर पकड़ा और झट से डिब्बा खोला। ‘अरे वाह ! यह तो कॉफी मग है! कितना सुंदर है और इसमें कुछ लिखा भी है!’ ‘क्या लिखा है? मुझे दिखाओ!’ प्रथम छीनकर पढ़ने लगा- ‘आय’म ए प्राउड ब्लड डोनर!’ ‘ऐसा क्यों लिखा है भैया?’ अंशु ने उत्सुक होकर पूछा । तभी सिम्मी की नज़र आशीष के हाथ पर लगी पट्टी पर गई। वह माजरा समझ गई और कहा, ‘अब बता ही दो भैया!’ ‘हां भई! मैं रक्तदान करने गया था।’ सुनते ही सभी चौंक गए। आशीष के पापा ने सुनते ही कहा, ‘बच्चे कहीं रक्तदान करते हैं? तुम्हें किसने कहा रक्तदान करने को?’ ‘पापा! अब मैं अठारह साल का हो गया हूं, अब तो रक्तदान कर ही सकता हूं। हां, यह संयोग था कि आज ही मेरे कॉलेज में रक्तदान शिविर लगाया गया था। मैंने पहले इसलिए नहीं बताया कि मम्मी और आप सभी मेरे लिए परेशान हो जाते।’ कहकर आशीष सभी बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने लगा।