चंदू को गौरी ने माटी की अहमियत बख़ूबी समझा दी और एक अंजान महिला की मीठी झिड़की ने निशा को अहम सबक़ सिखा दिया

‘काकी, तुम इस उम्र में भी हिम्मत से अपना घर व खेत संभाल रही हो। बेटा भी शहर में अच्छा-ख़ासा कमा रहा है। अब तुम हो कि गांव छोड़कर शहर जाने से रहीं! पर मैं बता रहा हूं, यही हाल तो तुम्हारे बेटे गोविंद का भी है। वह शहर छोड़कर कभी गांव में आने वाला नहीं है।

तुम हमारे ही सहारे हो। फिर क्यों खेती-बाड़ी को लेकर इतनी परेशान होती रहती हो?’ चंदू अपनी काकी को हर दो-चार दिन में इस तरह की बातें बोल कर उसका मनोबल तोड़ने की कोशिश करता रहता था। आज तो उसने इससे भी आगे बढ़कर गौरी काकी को बोला- ‘काका थे जब की बात कुछ और थी। आप दोनों मेहनत करके खेतों से अच्छा-ख़ासा अनाज प्राप्त कर लेते थे। गोविंद को भी अच्छा पढ़ा-लिखाकर काबिल बना दिया। लेकिन काकी, अब काका जी के जाने के बाद नौकर वरसुंदों के भरोसे क्या- क्या काम संभाल सकोगी? घर-खेत मुझे देकर चारों धाम तीर्थ यात्रा कर आओ।’ गौरी काकी चंदू के मन के भाव समझ रही थी।

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उसने घृणित कुपित निगाह से चंदू को देखा तो चंदू ने पैंतरा बदलते हुए कहा- ‘मेरा मतलब इसे बेचकर अपने जीवन को आराम से बिताओ।’ गौरी काकी ने चंदू को फटकारते हुए कहा- ‘तेरे काका जो घर खेत छोड़ गए हैं, यही मेरे चारों धाम हैं। मैं एक इंच ज़मीन नहीं बेचने वाली हूं। मेरे गोविंद बेटे को आज चाहे मेरे प्यार, स्नेह व घर-खेत की ज़रूरत नहीं हो। लेकिन कल किसी आफ़त, विपदा या संकट की घड़ी में गांव की यही धरोहर उसका सहयोग करेगी व सहारा देगी। माटी की धरोहर अपने आप में बड़ी ज़िम्मेदारी होती है, जिसकी मैं जी-जान से देखभाल करूंगी।

ट्रेन तीव्र गति से दौड़ रही थी। निशा, उसके पति और दो वर्षीय पुत्र आर्यन घूमने के लिए दार्जिलिंग जा रहे थे। ग्रीष्मकालीन अवकाश के कारण बड़ी मुश्किल से ट्रेन में आरक्षण मिल पाया था। प्रयागराज स्टेशन पर एक संभ्रांत बुज़ुर्ग महिला डिब्बे में चढ़ीं। उनकी निचली बर्थ थी तो निशा को मन मारकर खिड़की के पास वाली सीट से हटना पड़ा। उसकी और उसके पति की ऊपर वाली बर्थ थी।

आर्यन खिड़की वाली सीट पर बैठने के लिए मचल रहा था। वातानुकूलित श्रेणी होने के बावजूद डिब्बे में बहुत भीड़ थी क्योंकि कई यात्रियों के टिकट वेटिंग लिस्ट में थे। निशा ने सोचा था कि वह निचली बर्थ वाले यात्री से अपनी सीट बदल लेगी और वह और आर्यन आराम से सो जाएंगे। मगर उन महिला को देखकर वह निराश हो गई। वह किसी पत्रिका में गुम थीं। िडब्बे में हो रहे कोलाहल का उन पर कोई प्रभाव नहीं था। दूसरी निचली बर्थ पर भी एक बुज़ुर्ग सज्जन थे। पटना पहुंचते-पहुंचते ट्रेन पांच घंटे लेट हो गई। आर्यन थोड़ी देर तो खेलता रहा। फिर उसने बहुत तंग करना शुरू कर दिया। निशा के पति ट्रेन के रुकने पर उसे डिब्बे से बाहर भी घुमाकर लाए मगर थोड़ी देर बाद उसने फिर रोना और मचलना शुरू कर दिया। निशा आर्यन को संभाल नहीं पाई तो उसे ज़ोर से डांटने लगी। एक तो वह उन बुज़ुर्ग महिला के व्यक्तित्व से सहमी हुई थी। उसे लग रहा था कहीं वे उसे डांट न दें।

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मगर उन्होंने पत्रिका एक किनारे रख दी और अपने बैग से चॉकलेट्स का एक पैकेट निकाला और आर्यन को अपने पास बुलाया। अपनी पसंद की चॉकलेट देखकर आर्यन उनके पास चला गया। उन्होंने उसे खिड़की की तरफ़ कर लिया और उसे खिड़की के बाहर दिखाने लगीं। उनके बैग में जैसे बच्चों की चीज़ों का ख़ज़ाना था। ड्रॉइंग बुक, पेंसिल कलर्स, ब्लॉक गेम। ‘ये सब मैं अपने पोते के लिए ले जा रही हूं’ उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा। आर्यन उनके साथ घुल-मिल गया था।

उन्होंने बाक़ी के पूरे सफ़र में आर्यन को एक न एक गतिविधि में व्यस्त रखा। कभी काग़ज़ की नाव और गुब्बारा, कभी पेंसिल स्केच, कभी ब्लॉक गेम! सोने तक आर्यन ने एक पल के लिए भी निशा को परेशान नहीं किया। रात को उन्होंने अपनी निचली बर्थ भी निशा और आर्यन को दे दी। सिलीगुड़ी आने पर निशा ने कृतज्ञ भाव से उनसे विदा ली। उन्होंने मुस्कराते हुए निशा को मीठी सी झिड़की दी, ‘बच्चों में असीम ऊर्जा होती है। हम उन्हें ये तो कहते हैं कि ये मत करो, वो मत करो, मगर ये नहीं बताते कि क्या करो। आगे से आर्यन के साथ सफ़र पर निकलना तो पूरी तैयारी के साथ जाना।’ निशा ने कृतज्ञता से झुककर उनके पैर छू लिए।

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