गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं। दोपहर में तक़रीबन ढाई बजे के आसपास डोर बेल बजी। मम्मी होंगी यह सोचकर छह साल की आशी दौड़कर दरवाज़ा खोलने आई। लैच की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि तभी मम्मी की हिदायत याद आई, ‘बिना की-होल से देखे दरवाज़ा मत खोलना। अंदर से ही पहले पूछना कौन है?’ लैच की ओर बढ़ता आशी का हाथ रुक गया और उसने स्टूल पर चढ़कर की-होल से बाहर झांका तो देखा वहां मम्मी नहीं थीं। एक दाढ़ी वाला अजनबी खड़ा था।
आशी को याद आया कि मम्मी ने कहा था, ‘कोई आ जाए तो दरवाज़ा मत खोलना। अंदर से ही बोल देना कि शाम को आना…।’ ‘ क्या करूं?’ वह सोच ही रही थी कि दोबारा डोर बेल बज गई। ‘अंकल, मम्मी तो घर पर नहीं हैं। आप शाम को आना।’ आशी ने ज़ोर से कहा तो आवाज आई, ‘आशी बेटा, मैं तुम्हारा मामा हूं। भावेश मामा… यूएस से आया हूं।’ यह सुनकर आशी चौंकी, ‘ये तो मेरा नाम जानते हैं।’ उसने सोचा तभी उसके जासूसी दिमाग़ ने चेताया, नाम पता करना कौन सी बड़ी बात है। खो-खो में वह सबसे तेज़ दौड़ती है। सब उसे कहते हैं आशी उड़नतश्तरी… आशी ने फिर की-होल से झांका और अंदर से ही बोली, ‘नहीं-नहीं, मैं आपको नहीं पहचानती। वैसे पहचानती तो भी न खोलती।
मम्मी बोलकर गई हैं, कोई भी हो दरवाज़ा नहीं खोलना। जान-पहचान का हो तो भी कह देना कि बाद में आएं। बाद में मतलब… जब मम्मी घर आएं।’ ‘कितनी देर में आएंगी मम्मी?’ अजनबी ने पूछा तो उसने ‘बस आती ही होंगी।’ कहकर उसे और ख़ुद को तसल्ली दी। पर वह जानती थी कि मम्मी को देर भी लग सकती है। आज वो अपना मोबाइल ठीक करवा के ही आएंगी। पिछले चार दिनों से मोबाइल परेशान कर रहा है। कल से वह चार्ज ही नहीं हुआ… फिर बुआ से भी मिलना है। समय लग सकता है। वह सोच ही रही थी कि अजनबी ज़ोर से बोला, ‘तुम्हारी मम्मी का फोन क्यों नहीं लग रहा है?’ ‘वो ख़राब है। उसे ही ठीक करवाने गईं हैं।’ आशी ने जवाब दिया और जल्दी ही दरवाजे के पास से हट गई। दो-चार मिनट वह अपने कमरे में बैठी फिर मन नहीं माना तो धीमे-धीमे कदमों से चलकर आई और की-होल से झांकने लगी।
वह अजनबी अभी भी दरवाज़े के पास खड़ा था। वह कभी माथे पर हाथ रखता तो कभी इधर-उधर देखता। गर्मी में उसे बहुत पसीना आ रहा था। वेे उसका नाम भी जानते हैं तो क्या पता मामा ही हों। मम्मी ने भावेश मामा की फ़ोटो दिखाई है पर ये अंकल उनसे कितने अलग हैं। सेम टू सेम होते तो भी दरवाज़ा नहीं खोलती। मम्मी ने यही तो कहा था, जान-पहचान का हो तो भी कह देना बाद में आना… ख़ुद को मन ही मन समझाकर वह चुपचाप फिर से अपने कमरे में चली गई। और समय होता तो लैंडलाइन से मम्मी के फोन पर बात कर लेती पर अभी क्या करे उनका मोबाइल तो ख़राब है। काश! वह भी साथ चली गई होती। मम्मी ने कहा तो था साथ चलने को, पर ‘धूप बहुत है। टीवी पर मेरी पसंदीदा एनिमेटेड मूवी आ रही है।’ कहकर उसने मना कर दिया। पर इन्होंने डोर बेल बजाकर डिस्टर्ब कर दिया। कहते हैं कि मैं मामा हंू। क्या करूं? दरवाज़ा खोल नहीं सकती क्योंकि मम्मी ने बार-बार कहा था, ‘कोई आए… कोई भी आए, बस दरवाज़ा मत खोलना।’ मम्मी उसे घर पर अकेले छोड़ने की बात से परेशान थीं पर वह उत्साहित थी।
अकेले आराम से घर पर रहना, मूवी देखना, कॉमिक पढ़ना और ब्राउनी खाने की कल्पना करके ही वह खुश थी, पर अब क्या करे, न ब्राउनी खाने में मन लग रहा है न टीवी देखने में… आशी सोच-विचार में खोई थी कि फिर डोर बेल बजी। शायद अबकी बार मम्मी आई हों सोचते हुए वह भागी पर ये क्या! दाढ़ी वाले अंकल दरवाज़े से एकदम सटे खड़े थे। ‘क्या बात है?’ उसने पूछा। ‘आशी बेटा, थोड़ा पानी पिला दो। बड़ी प्यास लगी है।’ यह सुनकर उसे उन पर दया आई। वह पानी लेने मुड़ी ही थी कि तभी ख़्याल आया पानी का गिलास पकड़ाने के लिए तो दरवाज़ा खोलना ही पड़ेगा।
‘अंकल नीचे एक जनरल स्टोर है। पीपल के पेड़ के बगल में। उनके यहां पानी की बोतल मिल जाएगी।’ सोच-विचार के बाद आशी ने दरवाज़ेे के पास आकर ज़ोर से कहा तो वह अजनबी कुछ बड़बड़ाते हुए मोबाइल कान पर लगाए कुछ देर खड़ा रहा, फिर वापस जाने के लिए मुड़ गया। वह उनके हाव-भाव ध्यान से की-होल से देख रही थी। वह चला गया तो वह बेचैनी से बैठक में ही चहलकदमी करने लगी। कुछ देर बाद फिर से डोर बेल बजी तो वह बैठक से ही चिल्लाकर बोली, ‘अरे कहा न…मम्मी नहीं है। अभी दरवाज़ा नहीं खुलेगा।’ ‘अरे आशी मैं हूं…’ मम्मी ने दरवाज़ा थपथपाते हुए कहा तो उसने राहत की सांस लेते हुए दरवाज़ा खोला। पर ये क्या! सामने खड़ी मम्मी चिढ़ भरे भाव लेकर उसे घूर रही थीं और दाढ़ीवाला मुस्करा रहा था। ‘क्यों री! अपने मामा जी को इतना परेशान क्यों किया।’ ‘ये मामा जी हैं! पर फ़ोटो में तो कितने अलग लगते हैं।’
‘तुम भी तो कितनी अलग लग रही हो जब देखा था तब तुतलाती थी। अब देखो, कितनी समझदार हो गई।’ मामा जी ने लाड़ से कहा। ‘हां और इस समझदार ने तुझे कितना परेशान किया।’ मम्मी अपने भाई को देखकर कुछ अफ़सोस से बोलीं तो आशी बुझे स्वर में बोली, ‘मैंने कहां परेशान किया।’ ‘अच्छा… पिछले एक घंटे से बेचारा बाहर खड़ा है।’ ‘तो आपने ही तो मना किया था दरवाज़ा मत खोलना।’ आशी रुआंसी हो आई तो वह अजनबी, मतलब मामा जी हंसकर ‘अरे…अरे, उसे कुछ मत कहो, मैं अपनी गुड़िया से बहुत ख़ुश हूं…’ कहते हुए उसे प्यार से अपने पास बैठा लिया और आशी की मम्मी से बोले, ‘दीदी, जीजा जी ने भी फोन नहीं उठाया।’ ‘अरे, आज उनकी ज़रूरी मीटिंग है। क्या पता मीटिंग में रहे हों।’
‘बाप रे, सरप्राइज की बड़ी सज़ा मिली। इतनी गर्मी में बाहर खड़ा रहना पड़ा मुझे…’ ‘सच में… न मैं बाहर जाती और न ये सब होता। पहली बार घर पर अकेले छोड़ा है। इसलिए बार-बार कह गई थी कि दरवाज़ा मत खोलना।’ ‘और मैं बहुत ख़ुश हूं कि इसने दरवाज़ा नहीं खोला।’ मामा जी आशी पर स्नेह भरी नज़र डालकर बोल रहे थे, ‘तीन साल की थी जब देखा था इसे, पार्क में, बाज़ार में, कहीं भी चल पड़ती थी। कोई भी बुलाए उसके पास चली जाती थी। अब देखो, कितनी बड़ी और समझदार हो गई है हमारी आशी। जब ये बड़ी होगी तो समझ जाएगी कि किसके लिए दरवाज़ा खोलना है और किसके लिए नहीं।’